मैं कहूँ न कहूँ ......
रहूँ न रहूँ ......
तुम छूना मुझे ......
छूना.... जैसे प्रभाकर की पहली
किरण
छूती है सुबह को .....
जैसे ...छूती है खुशबू पराग को
ओस जैसे गुलाब को
जैसे..... छूते हैं मेघ वसुधा
को
देते हैं हरितमा धरा को
तुम छूना मुझे अंतरंग
जैसी... छूता है पलाश को बसंत
अंजुलि भर दोष हर लेना
प्रेम अर्घ्य दे कर, सींच देना
पोर - पोर अनंत.......
मैं देखूँ न देखूँ
कहूँ न कहूँ
रहूँ न रहूँ..... तुम देखना मुझे
जैसे... देखती है चाँदनी समग्र
को
जैसे... देखते है लौ अंधकार को
…….. (Dr. Shashvita)