Wednesday, June 6, 2018


मैं कहूँ न कहूँ ......
रहूँ न रहूँ ......
तुम छूना मुझे ......
छूना.... जैसे प्रभाकर की पहली किरण
छूती है सुबह को .....
जैसे ...छूती है खुशबू पराग को
ओस जैसे गुलाब को
जैसे..... छूते हैं मेघ वसुधा को
देते हैं हरितमा धरा को
तुम छूना मुझे अंतरंग
जैसी... छूता है पलाश को बसंत
अंजुलि भर दोष हर लेना
प्रेम अर्घ्य दे कर, सींच देना
पोर - पोर अनंत.......
मैं देखूँ न देखूँ
कहूँ न कहूँ
रहूँ न रहूँ..... तुम देखना मुझे
जैसे... देखती है चाँदनी समग्र को
जैसे... देखते है लौ अंधकार को  …….. (Dr. Shashvita)


दे रही  हूँ तुम्हे अनावृत स्पर्श........
आवरण मुक्त हो जाना तुम।
अँधेरे की अंतिम इकाई  तक आकण्ठ प्रेम.....
जहाँ गर्भित होते हैं......  उजास के सभी रंग
सींच  रहीं हूँ तुम्हारी नाभि में  मादक मौन ......
अगणित मुक्त संभावनाओं के साथ दे रहीं हूँ तुम्हे ......
पोर पोर दे रही हूँ हरी सिहरन
जीवंत हो जाना तुम .......
रोप  रहीं हूँ तुम्हारे अस्तित्व में विश्वास के
 श्वेत नमी कण ......
सभी क्रियाओं के बाद भी ......
समस्त बीत जाने पर भी... 
जो ठहर जाए ......
बचा रहे सदा ......
साँचा वो ......
दे रही हूँ तुम्हे ........
अद्वैत ऊर्जा लिए एक
तृप्त एहसास  
नित नयन नव नूतन .....छुअन 
उस  छवि  रमन मन गमन..... 
लागि लगन...... जैसे ........  
पवन हुई मगन सुमन..... सुमन.......
डोले वन उपवन 
बोले प्रीत ..... हुई मीत ....... 
संग - संग पाकि - पाकि गगन - गगन 
घन - घन सघन - सघन
उदर  उर तन मन बाजे मृदंग .... 
उतरे तरंग 
जैसे नील वर्ण श्यामल सुगंध फैले ...... 
भोर - भोर हुए पोर - पोर .... 
शीतल तपन  हुई किरण - किरण 
जैसे ......
रवि शशि दोनों प्रेम रत्त 
पृथ्वी .. जल...  थल....  नग्न नग्न ........(शाश्विता)    




 
इन पंखुड़ियों  की गलियों  में ,
हृदय परिधि के सम्मुख 
इस शीतल एकांत में
अगर आओ तुम...... 
इस  अँधेरे में , प्रेम प्रकाश है 
बहुत.... 
कोई आवरण नहीं यहाँ 
गहन सन्नाटे में बस आरम्भ है 
तुम्हारा 
इस प्रेम परिधि की स्वयं कोई परिधि नहीं 
... यहाँ आनंद है भरपूर 
सम्पूर्ण मस्ती है 
श्रृंगार भरा मधुर आलिंगन है 
यह पगडंडियां तुम्हें सीमाओं के पार ले जाएँगी 
इन पगडंडियों की एक ही मंज़िल है..... प्रेम 
प्रवेश द्वार को तुम्हारा इंतज़ार है 
अगर आओ  तुम .... (शाश्विता )

चूड़ियों की खनक थी वहाँ, काँच की चुभन भी..... खामोश थी वह, कुछ हैरान भी लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा...... भीतर गहरे में कहीं गूँजत...