Wednesday, January 30, 2019

उसे समेटना संभव नहीं

कुछ ऐसे आंकलन हैं,
मूल्यांकन कहें......तो पर्याप्त होगा शायद
.....उसमें......
दो गुना अधिक भूख
चार गुना अधिक लज्जा
आठ गुना अधिक कामुकता होती है
.....वह....
प्रकृति में सबसे स्वछंद प्राणी है.
विश्वास के अदभुत सौंदर्य में
उसकी नाभि में सांस लेते हैं,
सृजनता के अग्निकण
उसके गर्भ के गहरे अँधेरे में,
धड़कता है,
अविरल जीवन......
उसकी देह की मांसल स्निग्ध्ता में ही,
परिपक्व होते हैं,
शिराओ में,
शौर्य के रक्तकण.
उसकी आभा की परिक्रमा से ही,
संभव हुए हैं,
समस्त.....धर्म युद्ध
प्रतिउत्तर ....महासंग्राम
उसके तिलक से प्रेरित मस्तिष्कों में ही
गौरवांवित हुए हैं,
पौरुषता के वैभव,
अराजकता के ध्वंस
......दो गुना अधिक भूख.....
.....चार गुना अधिक लज्जा.....
.....आठ गुना अधिक कामुकता......
.....के साथ....
उसके अंक में, पुष्ट होती हैं पीड़ियाँ
तृप्त होते हैं पितृ
पारितोषिक देते हैं नक्षत्र
संकुचित दिन चर्या में
.....वह.....
साधारण स्त्री
असाधारण उर्जा से आंदोलित,
अस्मिता के उजास में
समय की मौन संवेदनाओं में उतरती.....
अपनी रीड़ के मूल में संचित,
समस्त वेगों को,
.....रुपांतरण कर....
भीतर के आयामों में,
प्रयास रत.....
प्रकृति की निरंतरता में रचती है,
अपने दिव्य हस्ताक्षर......
.....वह.....
स्वछंद प्राणी है,
उसे समेटना संभव नहीं.










Tuesday, January 29, 2019

मुक्ति की संभावनाएं, उसके बहुत करीब हैं
बचपन की कहानियों से गुज़रती, 
हर पगडण्डी.......
हर वह मील पत्थर......
जो उसे परियों की सुनहरी देह तक ले जाते थे 
पूरी तरह भूल चुकी है वह 
माँ की लोरी में......
निपुण राजकुमार का आश्वासन भी,
......एक बुरे सपने की तरह.....
समस्त उत्पीड़न के बाद भी,
उसकी रातों में चमकते हैँ जुगनू,
झींगुर की आवाज़ 
और 
धड़कन.......
व्यभिचार की परिभाषा 
और 
व्यापार के बीच,
निसंदेह 
खिलते हैं उसकी देह में सात रंग, 
मानवता की गंध 
एक मौलिक स्पर्श 
वैशया परिवेश में निर्लिप्त 
सारी संज्ञाओं के पार 
प्रेम के अदभुद सौंदर्य में असीम 
विराट हो रहे है.......वह....
मुक्त हो रही है......वह....... 




सहवेदना

मेरे घर की जूठन घिसती,
तेरे हाथों की लकीरों को, देना चाहती हूँ मैं,.....
 कुछ और विस्तार......
तेरी जवान उम्र की झुर्रियों को,........
उतरन
दया
और
घृणा से कुछ अलग देना चाहती हूँ......
नारियल
फल
और
काली दाल में कैद, परिवार की बालाओं के साथ
कुछ और भी
मैं........जानती हूँ,
तीस दिन की जी तोड़ मेहनत,
तुम्हारी हथेलियों पर,
छन से गिरते,......चंद सिक्कों का संगीत नहीं
मैं.........
देना चाहती हूँ, तुम्हारी मजबूर आँखों को,........
एक तृप्त एहसास........!
तेरी.........
उमंगो के पंछी
कहां,कूकते हैं मन की बगिया में,
चाहते हैं
खुला आकाश.........
कुछ बूँदे
.......और.........
आग.
देना चाहती हूँ
तुम्हें,
गीली मिट्टी की
खुशबू
छोटी-छोटी आशाओं में.......
क्षितिज का इंतजार.
.......तेरी.......
मैली काया में......
मैं ही......
सुलग रही हूँ
बेबसी की धूप लिए,
ऐ अजनबी......
.....तुम.......
मेरे दिल में धड़कती,
मेरे अक्स का रुप हो
......मैं.....
देना चाहती हूँ....
......तुम्हें,.....
कुछ और भी
कुछ भी
जो तुम,
चाहती हो
......शायद......
इनाम
और
प्रमाण
तेरे......मेरे....
इंसान होने का.
(Dr Shashvita)


Monday, January 28, 2019

प्रेत पीड़ा

वह अचानक प्रकट होता है
कुछ विचित्र स्वाभाव के साथ
सम्पूर्ण वर्चस्व के साथ; दर्शाता है अपनी सत्ता
कारण वश........
वह पूरी तरह आज भी है अस्तित्व में;
कुंठित भावनाओं के साथ
विचलित मानसिकता के साथ; माहौल में पूरी तरह सवतंत्र.....
उद्दंड संकेतो के साथ वह हमारी शांति में उतरता है
उसके स्मरण में हैं ...........
सारी भौतिकता.....
पीड़ाएँ सारी
व्यथाएं सारी
संचित वेग और भरपूर उद्विग्नता
विपरीत मनोवृत्ति में अतृप्त कहानी को वह अपनी ही तरह दोहराएगा.
जवलंत प्रष्न चिन्हो में ग्रस्त वह प्रेत आपदाओं के साथ पुनः पुनः आएगा.
हमारे सम्मुख यह मौलिक ज़िम्मेदारी है.....
प्रेत होती मानसिकता से समस्त वायुमंडल का शोधन करना
प्रेत हो जाने की हर सम्भावना को मूलता विरेचित करना
प्रत्येक दिशा में भटकते दिशाहीन प्रेत को सम्पूर्ण विशवास के साथ मानवीय सम्बोधन देना
प्रेम की साँची सत्ता के साथ प्रेत प्रतिकूलता को विजयी स्पर्श देना
करना आवाहन प्रथम स्पन्दन का.....
.......और.....
बिना किसी प्रताड़ना; प्रेत विसर्जित हो जाये
पुनः कभी आवृत ना हो पाए प्रेत
वह मुक्त हो जाये.
(Dr Shashvita)


चूड़ियों की खनक थी वहाँ, काँच की चुभन भी..... खामोश थी वह, कुछ हैरान भी लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा...... भीतर गहरे में कहीं गूँजत...