कुछ ऐसे आंकलन हैं,
मूल्यांकन कहें......तो पर्याप्त होगा शायद
.....उसमें......
दो गुना अधिक भूख
चार गुना अधिक लज्जा
आठ गुना अधिक कामुकता होती है
.....वह....
प्रकृति में सबसे स्वछंद प्राणी है.
विश्वास के अदभुत सौंदर्य में
उसकी नाभि में सांस लेते हैं,
सृजनता के अग्निकण
उसके गर्भ के गहरे अँधेरे में,
धड़कता है,
अविरल जीवन......
उसकी देह की मांसल स्निग्ध्ता में ही,
परिपक्व होते हैं,
शिराओ में,
शौर्य के रक्तकण.
उसकी आभा की परिक्रमा से ही,
संभव हुए हैं,
समस्त.....धर्म युद्ध
प्रतिउत्तर ....महासंग्राम
उसके तिलक से प्रेरित मस्तिष्कों में ही
गौरवांवित हुए हैं,
पौरुषता के वैभव,
अराजकता के ध्वंस
......दो गुना अधिक भूख.....
.....चार गुना अधिक लज्जा.....
.....आठ गुना अधिक कामुकता......
.....के साथ....
उसके अंक में, पुष्ट होती हैं पीड़ियाँ
तृप्त होते हैं पितृ
पारितोषिक देते हैं नक्षत्र
संकुचित दिन चर्या में
.....वह.....
साधारण स्त्री
असाधारण उर्जा से आंदोलित,
अस्मिता के उजास में
समय की मौन संवेदनाओं में उतरती.....
अपनी रीड़ के मूल में संचित,
समस्त वेगों को,
.....रुपांतरण कर....
भीतर के आयामों में,
प्रयास रत.....
प्रकृति की निरंतरता में रचती है,
अपने दिव्य हस्ताक्षर......
.....वह.....
स्वछंद प्राणी है,
उसे समेटना संभव नहीं.
मूल्यांकन कहें......तो पर्याप्त होगा शायद
.....उसमें......
दो गुना अधिक भूख
चार गुना अधिक लज्जा
आठ गुना अधिक कामुकता होती है
.....वह....
प्रकृति में सबसे स्वछंद प्राणी है.
विश्वास के अदभुत सौंदर्य में
उसकी नाभि में सांस लेते हैं,
सृजनता के अग्निकण
उसके गर्भ के गहरे अँधेरे में,
धड़कता है,
अविरल जीवन......
उसकी देह की मांसल स्निग्ध्ता में ही,
परिपक्व होते हैं,
शिराओ में,
शौर्य के रक्तकण.
उसकी आभा की परिक्रमा से ही,
संभव हुए हैं,
समस्त.....धर्म युद्ध
प्रतिउत्तर ....महासंग्राम
उसके तिलक से प्रेरित मस्तिष्कों में ही
गौरवांवित हुए हैं,
पौरुषता के वैभव,
अराजकता के ध्वंस
......दो गुना अधिक भूख.....
.....चार गुना अधिक लज्जा.....
.....आठ गुना अधिक कामुकता......
.....के साथ....
उसके अंक में, पुष्ट होती हैं पीड़ियाँ
तृप्त होते हैं पितृ
पारितोषिक देते हैं नक्षत्र
संकुचित दिन चर्या में
.....वह.....
साधारण स्त्री
असाधारण उर्जा से आंदोलित,
अस्मिता के उजास में
समय की मौन संवेदनाओं में उतरती.....
अपनी रीड़ के मूल में संचित,
समस्त वेगों को,
.....रुपांतरण कर....
भीतर के आयामों में,
प्रयास रत.....
प्रकृति की निरंतरता में रचती है,
अपने दिव्य हस्ताक्षर......
.....वह.....
स्वछंद प्राणी है,
उसे समेटना संभव नहीं.