Friday, February 1, 2019

स्त्री वह

उसके आँगन की तुलसी....हेमंत में भी हरी रहती है,
उसे छूने को चाँदनी ज़मीन तक उतरती है......
नक्षत्र.....उसकी लकीरें करीब से पड़ते हैं.
बादल.....उसकी मुंडेर को बिन,सावन तरसते हैं
उसके, कानों में हवा, पहला दस्तक देती है....
आँखोंं में, नाचता है,
......बसंत.....
खुशबू, मंद मंद श्रृंगार करती है
......वह.....
जब प्रेम में होती है.
..........प्रेम में............
वह, रंग और रूप बदलती है
गुलाबी अदा,
केसरी होने लगती है
ना, रुकना जानती है,
ना, चलना......
पहुंचती है
उधर-जिधऱ,
प्रेम......उसे ले जाए
रात......उसे सुला ना पाई
दिन में......
उसे जागना ना आया
पीली पत्ती की
हरी खुशबू
जैसे,
वह.....
सांस लेती है
स्त्री, वह.......
प्रेम में रहती है निरंतर

प्रेम में,,,प्रकृति होने लगती है वह



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चूड़ियों की खनक थी वहाँ, काँच की चुभन भी..... खामोश थी वह, कुछ हैरान भी लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा...... भीतर गहरे में कहीं गूँजत...