Tuesday, February 5, 2019

वह परिचारिका

उसका आँगन भी जोगिया हो जाता,
जब जब आता बसंत..........
उसकी नींदों में भी,
कोमल........
मृदुल........
सपने होते,
होती मखमली मुस्कान,
वह भी,
सावन की मादल नाईका हो जाती,
गर......वह परिचारिका ना होती
उसके अधर भी,
पंखुड़ियों की उपमा से,
गौरवान्वित हो जाते,
उसकी कमर का लौच भी,
इन्द्रदानुषी करवटों से सम्भोदित होता,
देह की मांसल स्निगधता में,
वह भी.......सिमटती, इतराती
गर वह परिचारिका ना होती.
गर उसकी कोख में,
अराजक उपज ना फ़ैलती
भूखी........
बिलखती........
आहों ने गर,
छाति का दूध ना सुखाया होता.
.......उसकी........
सवतंत्र मनोवांछित संवेदनाएं,
अभावों से पीड़ित ना होती,
कुपोषित शिराओं के संकुचन ने गर,
उसकी त्वचा को,
शोषित ना किया होता,
........वह मनोरमा......
......वह कांता....
गजगामिनी वह......
परिचारिका ना होती.......
वह निर्दोष,
अबोध,
गर जन्म जात दूषित ना होती.......
ना होती,
........वह......
अनुवांशिक हीनता से कुंठित,
गर वह स्नेहिता,
वह वत्सला
दलिता ना होती.
ना होती उसकी,
परंपरागत,
व्यथित मनोदशा
........वह नैसर्गिक अनुपमा......
परिचारिका ना होती......


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