Monday, February 11, 2019

चूड़ियों की खनक थी वहाँ,
काँच की चुभन भी.....
खामोश थी वह,
कुछ हैरान भी
लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा......
भीतर गहरे में कहीं
गूँजते हैं,
अर्थ निरंतर
स्वयं की,
सौंदर्य सत्ता में वह.......
श्वास श्वास
प्राण प्राण
धड़कती है,
जैसे.........
बीज के गर्भ में,
सांस लेती है.....
विकास की अदृश्य संभावनाएं,
सृजन की हरित ऊर्जा
वह........
रीतियों के प्रष्न चिन्हो को,
अनुत्तरित लाँगती है,
सारे अपशगुन
तमाम विरोधाभास,
प्रारब्ध से निकालकर,
अपने हिस्से की ज़मीन को सींचती है साधिकार,
टूटी हुई चीज़ो से,
सजाती है,मनन पसंद कोना.
विश्वास की मांगलिक संवेदना को,
मांग में भर,
आसमानी देवताओं को अर्घ देती है........
वास्तु के निज आगन्तुज,
दोषों को अंतस की,
जलज परिक्रमा से धोकर
करती है जीवन का मांगलिक अभिषेक,
वह.....
पेड़
पहाड़
तूफ़ान......
करीब से देखती है.
देखती है,
चिड़िया का घोंसला,
गुलमोहर के फूल,
धरती आकाश की
मौन नैसर्गिकता लगातार......
वह देखती है जल की गति
उसकी स्वाभाविक एकरूपता
उसके स्मरण में आती हैं,
समस्त निष्चल स्मृतियाँ
प्रथम स्पन्दन.......
और, इस आशचर्य जनक रोमांच में,
.......वह.......
अस्तित्व हो जाती हैं.




Sunday, February 10, 2019

अद्वैत

 जहाँ,नीली नदी
और,
गहरी होती है.......
आसमान........
कुछ और,
खामोश.......
बादलों की तलब,
और......
जवान होती है,
बूँदे थिरकती हैं हरिताल पर.......
वहाँ.....जहाँ,
अगनित संभावनाओं में,
......तुमने.....
उतारा है मुझे
समय की इकाई से,
कुछ आगे........
समय की इकाई से,
आगे........
जहाँ, कुछ नहीं रहता शेष
तुम्हारी धड़कनो से उतर,
साँसें ओढ़ती हैं मुझे
अंततः देती हैं......विराम
उस......सांवली गहराई को छूना है
तमाम अर्थो में उतरना हैं,
अस्तित्व होना है......आज
स्पर्श दो मुझे.


Wednesday, February 6, 2019

पहले से अलंकृत,
ध्वनियों में,
जब कोई नाद,
गूंजा होगा कहीं......
तुम हृदय में थे,
प्रकाश समेटे.......प्रभाकरण कहीं
आकाश के,
जलज पाश में थे,
धड़कते,इंद्रधनुष
करवटों में सात रंग कई
क्या, अदृश्य आलिंगन की,
अंतरिक्ष परिक्रमाओ से,
अवतरित हुए,
अग्निकण........सृजन ऊर्जा के कहीं,
इस अद्बुध रस के साक्षी,
मौन संवेदनाओं में थे,
तुम.......मेरे लिए,
और,
मैं......तुम्हरे लिए.....
पहले से कहीं
जब नहीं थी.......देह,
यह प्राण......
काल भी......
कहीं नहीं,
कहां थी.......
यह ऊर्जा,
यह चेतना.....
क्या.......अज्ञात के,
अनंत केन्द्रो में
प्रेम मये.......
पहले से,थी कहीं



सहवेदना-2

मेरी समीपता के सानिध्य में सुरक्षित,
सो रही है बेटी,
अगनित, सवतंत्र विकल्पों के साथ,
आशाओं की भरपूर नींद........
बिटिया की स्निग्ध्ता को,
सहलाते हुए,
रात की निश्छल चांदनी में,
खोज रही हूँ.......मैं,
उसकी दिव्यता के मांगलिक संकेत.
भर रही हूँ ममत्व की गर्भित उड़ान,
.........और........
कहीं मेरी सहकर्मी,
मेहनतकश मित्र,
परिवार की सफलता के लिए,
उन्नत योजना बना रही होगी
कहीं कोई नवविवाहिता........
इंतज़ार से फलित,
क्रियाओं की,
कोमल संवेदनाएं बुन रही होगी
रात अपने एकांत में........
अपने मौन में,
कितने रहस्य खोल रही है,
अंतरिक्ष के गर्भ में,
आकार ले रही हैं,
कितनी रासायनिक क्रियाएँ
सूक्षम नक्षत्र भी हैं,
परिवर्तन शील........गतिमान
सम्पूर्ण बदलते परिवेश में,
सियारे भी,
अपनी....अपनी,
धुरी पर क्रियारत.
समय की इस अदभुद,
इकाई में,
समस्त आश्चर्य जनक सौंदर्य में,
.......तुम........
अपनी चार दीवारी से,
मेरे घर तक की,
निरंतरता में,
कितनी सहजता से हो अभयस्त
इस बदलते हुए परिवेश में,
कैसे बदलेंगी,
तुम्हारी भावदशा........?
क्या तुम अपनी,
वास्तविकता की गंध से,
साँसों को गौरवान्वित कर पाओगी....?
क्या तुम, वसंत के हिलोरों में झूल पाओगी,
इंद्रधनुषी उड़ान........?
क्या मकर की पहली संक्रांत के,
पवित्र जल से,
तुम्हारी जड़ों में,
अंकुरित हो पायेगा नव सृजन........?
क्या, उत्तरायण की,
सूर्य सत्ता से,
छट पाएगा, तुम्हारे प्रारब्ध का अंधकार................?
क्या, यह पगडंडिया..........
तुम्हें,
दे पाएंगी
एहसास की पराकाष्ठा.......?
क्या तुम्हें भी,
सफल दिशा निर्देश,
गर यह संकीर्णताएं,
दे पाए.........तुम्हें
निर्वाण का उजास.

स्पर्श-2

उसने कहा .......
धरती और आकाश
मेरे भीतर,
सारी संवेदना जैसे,
नमन में,
धरकने लगी हो .....
उसने कहा ... 
पीपल,
बरगद
और
मैना. .....
जैसे,समस्त प्रकृति ने,
अपनी धुरी पर,
अथाह करवट से,
मूझे छुआ हो,
जैसे हरी सिहरन ने,
पोर पोर रोमांचित किया हो
साँसो के लय में,
कुछ मद्धम मगर
अदभुत स्वर में,
कहा उसने,
नीम की जड़ों में फैली...  ...
दिव्य रासयनिक ऊर्जा को देखो
देखो अदृश्य उर्वरता को......
समय के आश्चर्य देखो... ...
देखो झील की
नीली गहराई....
इस मादक मौन की सत्ता में आयो,
अशरीरी होने के,
रूपांतरन को देखो........
आकाश के विराट में,
सतरंगी धाराओं को
देखकर ..... ...
ढलते सूरज की,
सिन्दूरी लालिमा को छूकर,
जब कहा उसने.... .. ..
स्पर्श. .........
मेरे स्मरण में आई,
......माँ  ....
पहला पोषण
माँ की तमाम अनदेखी,
सूख्श्म कलाएं
उसकी पहली सीख,
और... ...
जीवन के अगनित खनिज
जिन्होंने हमेशा मेरी नज़र उतारी है.
स्मरण में आई
वो समस्त नैसर्गिक क्रियाएं
जो अपनी निर्धारिता में गतिमान रहती हैं,
......और.......
स्मरण में आए,
 वोह.......मेरे बचपन के साक्षी,
मेरे सहयात्री,
मेरी गोपनीयता को बचाने वाले,
तमाम रहस्यों के रोचक कथाकार,
जिनकी आँखों में,
रात.....दिन,
तैरते थे.....
जैविक ऊर्जा के नमी कण,
मेरे परम सखा,
मेरे प्रथम मित्र,
वो.........दिवंगत पितृ.
जो देते हैं,
आज भी,
मेरी सीमाओं को.......
दिशाओं को.......
अदृश्य सुरक्षा.
भरते हैं,
मेरी नाभी में,
मांगलिक संकेत.




Pe

Tuesday, February 5, 2019

वह परिचारिका

उसका आँगन भी जोगिया हो जाता,
जब जब आता बसंत..........
उसकी नींदों में भी,
कोमल........
मृदुल........
सपने होते,
होती मखमली मुस्कान,
वह भी,
सावन की मादल नाईका हो जाती,
गर......वह परिचारिका ना होती
उसके अधर भी,
पंखुड़ियों की उपमा से,
गौरवान्वित हो जाते,
उसकी कमर का लौच भी,
इन्द्रदानुषी करवटों से सम्भोदित होता,
देह की मांसल स्निगधता में,
वह भी.......सिमटती, इतराती
गर वह परिचारिका ना होती.
गर उसकी कोख में,
अराजक उपज ना फ़ैलती
भूखी........
बिलखती........
आहों ने गर,
छाति का दूध ना सुखाया होता.
.......उसकी........
सवतंत्र मनोवांछित संवेदनाएं,
अभावों से पीड़ित ना होती,
कुपोषित शिराओं के संकुचन ने गर,
उसकी त्वचा को,
शोषित ना किया होता,
........वह मनोरमा......
......वह कांता....
गजगामिनी वह......
परिचारिका ना होती.......
वह निर्दोष,
अबोध,
गर जन्म जात दूषित ना होती.......
ना होती,
........वह......
अनुवांशिक हीनता से कुंठित,
गर वह स्नेहिता,
वह वत्सला
दलिता ना होती.
ना होती उसकी,
परंपरागत,
व्यथित मनोदशा
........वह नैसर्गिक अनुपमा......
परिचारिका ना होती......


स्पर्श

गीली मिट्टी
फिर......
सूख गई,
सूखी ज़मीन,
भीग गई...
ठण्डी नमी
जलने लगी
भीगी साँसे
सिमट गईं,
मेरे साथ,
मेरे लिए
फिर भी
कुछ,
बाकी रहा
जल ना सका
सुलगता रहा.......
एक टुकड़ा
धूप का .....
दर्द का
करार का .......
चांदनी की दावत में
सितारों पर शबाब था
बादलों में....
गुफ़्तगू थी
घटाओं को पैगाम था
छू गया....
मूझे ले गया
मेरा ही साया वो,,
गीला मन
भीगता गया.....

चूड़ियों की खनक थी वहाँ, काँच की चुभन भी..... खामोश थी वह, कुछ हैरान भी लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा...... भीतर गहरे में कहीं गूँजत...