Monday, February 11, 2019

चूड़ियों की खनक थी वहाँ,
काँच की चुभन भी.....
खामोश थी वह,
कुछ हैरान भी
लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा......
भीतर गहरे में कहीं
गूँजते हैं,
अर्थ निरंतर
स्वयं की,
सौंदर्य सत्ता में वह.......
श्वास श्वास
प्राण प्राण
धड़कती है,
जैसे.........
बीज के गर्भ में,
सांस लेती है.....
विकास की अदृश्य संभावनाएं,
सृजन की हरित ऊर्जा
वह........
रीतियों के प्रष्न चिन्हो को,
अनुत्तरित लाँगती है,
सारे अपशगुन
तमाम विरोधाभास,
प्रारब्ध से निकालकर,
अपने हिस्से की ज़मीन को सींचती है साधिकार,
टूटी हुई चीज़ो से,
सजाती है,मनन पसंद कोना.
विश्वास की मांगलिक संवेदना को,
मांग में भर,
आसमानी देवताओं को अर्घ देती है........
वास्तु के निज आगन्तुज,
दोषों को अंतस की,
जलज परिक्रमा से धोकर
करती है जीवन का मांगलिक अभिषेक,
वह.....
पेड़
पहाड़
तूफ़ान......
करीब से देखती है.
देखती है,
चिड़िया का घोंसला,
गुलमोहर के फूल,
धरती आकाश की
मौन नैसर्गिकता लगातार......
वह देखती है जल की गति
उसकी स्वाभाविक एकरूपता
उसके स्मरण में आती हैं,
समस्त निष्चल स्मृतियाँ
प्रथम स्पन्दन.......
और, इस आशचर्य जनक रोमांच में,
.......वह.......
अस्तित्व हो जाती हैं.




Sunday, February 10, 2019

अद्वैत

 जहाँ,नीली नदी
और,
गहरी होती है.......
आसमान........
कुछ और,
खामोश.......
बादलों की तलब,
और......
जवान होती है,
बूँदे थिरकती हैं हरिताल पर.......
वहाँ.....जहाँ,
अगनित संभावनाओं में,
......तुमने.....
उतारा है मुझे
समय की इकाई से,
कुछ आगे........
समय की इकाई से,
आगे........
जहाँ, कुछ नहीं रहता शेष
तुम्हारी धड़कनो से उतर,
साँसें ओढ़ती हैं मुझे
अंततः देती हैं......विराम
उस......सांवली गहराई को छूना है
तमाम अर्थो में उतरना हैं,
अस्तित्व होना है......आज
स्पर्श दो मुझे.


Wednesday, February 6, 2019

पहले से अलंकृत,
ध्वनियों में,
जब कोई नाद,
गूंजा होगा कहीं......
तुम हृदय में थे,
प्रकाश समेटे.......प्रभाकरण कहीं
आकाश के,
जलज पाश में थे,
धड़कते,इंद्रधनुष
करवटों में सात रंग कई
क्या, अदृश्य आलिंगन की,
अंतरिक्ष परिक्रमाओ से,
अवतरित हुए,
अग्निकण........सृजन ऊर्जा के कहीं,
इस अद्बुध रस के साक्षी,
मौन संवेदनाओं में थे,
तुम.......मेरे लिए,
और,
मैं......तुम्हरे लिए.....
पहले से कहीं
जब नहीं थी.......देह,
यह प्राण......
काल भी......
कहीं नहीं,
कहां थी.......
यह ऊर्जा,
यह चेतना.....
क्या.......अज्ञात के,
अनंत केन्द्रो में
प्रेम मये.......
पहले से,थी कहीं



सहवेदना-2

मेरी समीपता के सानिध्य में सुरक्षित,
सो रही है बेटी,
अगनित, सवतंत्र विकल्पों के साथ,
आशाओं की भरपूर नींद........
बिटिया की स्निग्ध्ता को,
सहलाते हुए,
रात की निश्छल चांदनी में,
खोज रही हूँ.......मैं,
उसकी दिव्यता के मांगलिक संकेत.
भर रही हूँ ममत्व की गर्भित उड़ान,
.........और........
कहीं मेरी सहकर्मी,
मेहनतकश मित्र,
परिवार की सफलता के लिए,
उन्नत योजना बना रही होगी
कहीं कोई नवविवाहिता........
इंतज़ार से फलित,
क्रियाओं की,
कोमल संवेदनाएं बुन रही होगी
रात अपने एकांत में........
अपने मौन में,
कितने रहस्य खोल रही है,
अंतरिक्ष के गर्भ में,
आकार ले रही हैं,
कितनी रासायनिक क्रियाएँ
सूक्षम नक्षत्र भी हैं,
परिवर्तन शील........गतिमान
सम्पूर्ण बदलते परिवेश में,
सियारे भी,
अपनी....अपनी,
धुरी पर क्रियारत.
समय की इस अदभुद,
इकाई में,
समस्त आश्चर्य जनक सौंदर्य में,
.......तुम........
अपनी चार दीवारी से,
मेरे घर तक की,
निरंतरता में,
कितनी सहजता से हो अभयस्त
इस बदलते हुए परिवेश में,
कैसे बदलेंगी,
तुम्हारी भावदशा........?
क्या तुम अपनी,
वास्तविकता की गंध से,
साँसों को गौरवान्वित कर पाओगी....?
क्या तुम, वसंत के हिलोरों में झूल पाओगी,
इंद्रधनुषी उड़ान........?
क्या मकर की पहली संक्रांत के,
पवित्र जल से,
तुम्हारी जड़ों में,
अंकुरित हो पायेगा नव सृजन........?
क्या, उत्तरायण की,
सूर्य सत्ता से,
छट पाएगा, तुम्हारे प्रारब्ध का अंधकार................?
क्या, यह पगडंडिया..........
तुम्हें,
दे पाएंगी
एहसास की पराकाष्ठा.......?
क्या तुम्हें भी,
सफल दिशा निर्देश,
गर यह संकीर्णताएं,
दे पाए.........तुम्हें
निर्वाण का उजास.

स्पर्श-2

उसने कहा .......
धरती और आकाश
मेरे भीतर,
सारी संवेदना जैसे,
नमन में,
धरकने लगी हो .....
उसने कहा ... 
पीपल,
बरगद
और
मैना. .....
जैसे,समस्त प्रकृति ने,
अपनी धुरी पर,
अथाह करवट से,
मूझे छुआ हो,
जैसे हरी सिहरन ने,
पोर पोर रोमांचित किया हो
साँसो के लय में,
कुछ मद्धम मगर
अदभुत स्वर में,
कहा उसने,
नीम की जड़ों में फैली...  ...
दिव्य रासयनिक ऊर्जा को देखो
देखो अदृश्य उर्वरता को......
समय के आश्चर्य देखो... ...
देखो झील की
नीली गहराई....
इस मादक मौन की सत्ता में आयो,
अशरीरी होने के,
रूपांतरन को देखो........
आकाश के विराट में,
सतरंगी धाराओं को
देखकर ..... ...
ढलते सूरज की,
सिन्दूरी लालिमा को छूकर,
जब कहा उसने.... .. ..
स्पर्श. .........
मेरे स्मरण में आई,
......माँ  ....
पहला पोषण
माँ की तमाम अनदेखी,
सूख्श्म कलाएं
उसकी पहली सीख,
और... ...
जीवन के अगनित खनिज
जिन्होंने हमेशा मेरी नज़र उतारी है.
स्मरण में आई
वो समस्त नैसर्गिक क्रियाएं
जो अपनी निर्धारिता में गतिमान रहती हैं,
......और.......
स्मरण में आए,
 वोह.......मेरे बचपन के साक्षी,
मेरे सहयात्री,
मेरी गोपनीयता को बचाने वाले,
तमाम रहस्यों के रोचक कथाकार,
जिनकी आँखों में,
रात.....दिन,
तैरते थे.....
जैविक ऊर्जा के नमी कण,
मेरे परम सखा,
मेरे प्रथम मित्र,
वो.........दिवंगत पितृ.
जो देते हैं,
आज भी,
मेरी सीमाओं को.......
दिशाओं को.......
अदृश्य सुरक्षा.
भरते हैं,
मेरी नाभी में,
मांगलिक संकेत.




Pe

Tuesday, February 5, 2019

वह परिचारिका

उसका आँगन भी जोगिया हो जाता,
जब जब आता बसंत..........
उसकी नींदों में भी,
कोमल........
मृदुल........
सपने होते,
होती मखमली मुस्कान,
वह भी,
सावन की मादल नाईका हो जाती,
गर......वह परिचारिका ना होती
उसके अधर भी,
पंखुड़ियों की उपमा से,
गौरवान्वित हो जाते,
उसकी कमर का लौच भी,
इन्द्रदानुषी करवटों से सम्भोदित होता,
देह की मांसल स्निगधता में,
वह भी.......सिमटती, इतराती
गर वह परिचारिका ना होती.
गर उसकी कोख में,
अराजक उपज ना फ़ैलती
भूखी........
बिलखती........
आहों ने गर,
छाति का दूध ना सुखाया होता.
.......उसकी........
सवतंत्र मनोवांछित संवेदनाएं,
अभावों से पीड़ित ना होती,
कुपोषित शिराओं के संकुचन ने गर,
उसकी त्वचा को,
शोषित ना किया होता,
........वह मनोरमा......
......वह कांता....
गजगामिनी वह......
परिचारिका ना होती.......
वह निर्दोष,
अबोध,
गर जन्म जात दूषित ना होती.......
ना होती,
........वह......
अनुवांशिक हीनता से कुंठित,
गर वह स्नेहिता,
वह वत्सला
दलिता ना होती.
ना होती उसकी,
परंपरागत,
व्यथित मनोदशा
........वह नैसर्गिक अनुपमा......
परिचारिका ना होती......


स्पर्श

गीली मिट्टी
फिर......
सूख गई,
सूखी ज़मीन,
भीग गई...
ठण्डी नमी
जलने लगी
भीगी साँसे
सिमट गईं,
मेरे साथ,
मेरे लिए
फिर भी
कुछ,
बाकी रहा
जल ना सका
सुलगता रहा.......
एक टुकड़ा
धूप का .....
दर्द का
करार का .......
चांदनी की दावत में
सितारों पर शबाब था
बादलों में....
गुफ़्तगू थी
घटाओं को पैगाम था
छू गया....
मूझे ले गया
मेरा ही साया वो,,
गीला मन
भीगता गया.....

Monday, February 4, 2019

कागज़ की नाव

तुम भी,
मेरे साथ आओ
फूलों की खुशबू में,
ताली बजाओ
तोते की आँख में,
ऊँगली डालो
चिड़िया के घोसले में,
चद्दर बिछाओ.
आओ,
हम दोनों,
मिट्टी का घर बनाए........
थोली सी मिट्टी खाएं......
कल,
तुमने जो सुनाई थी कहानी
दो बिल्लियों का झगड़ा,
और
बंदर की बेईमानी
आओ,
उनका झगड़ा सुलझाएं
फिर से,
उन्हें दोस्त बनाएं
उनकी दावत में,
शामिल हो जाए
......माँ......
यह बारिश कहां से आती है?
फिर,
क्यों गुम हो जाती है ?
क्या तुम्हारी आँखों में छुप जाती है?
जब तुम, लोरी सुनाती हो,
और सब भूल जाती हो
करती हो बंद आँखें
मुझे गले लगाती हो
तब जो निकलता है,
गोल गोल पानी
क्या वह बारिश बन जाता है........?
तुम जादा जादा,
बारिश लाया करो,
मैं कागज़ की नाव बनाऊंगी,
तुम्हें नानी के घर ले जाऊंगी
......माँ......
इधर आओ, अपना कान लाओ
एक जलुली बात बतानी है,
तुमने मुझे कहां से लाया था......?
क्या सब्ज़ी मंडी से?
फिर फूलों की दुकान से ?
याँ बच्चों के बाज़ार से?
नानी कहती है,
तुमने मुझे......आसमान से लाया था,
क्या......? परी माँ से चुराया था....? 
.........माँ.......
तुम्हें लोरी गाना किसने सिखाया,
खीर बनाना भी......?
तुम मेरी फ्रॉक कहां से लाती हो...?
कैसे गुड़िया के कपड़े बनती हो .....?
उसकी चोटी में क्यों रिबन लगाती हो,
मेरी गुड़िया की शादी में ढोलक बजाती हो
तुम्हें......क्या,
सब कुछ करना आता है
तुम मुझे सुलाती हो,
तुम्हीं सुबह जगाती हो
.......तुम.......
क्यूँ जागती रहती हो?
क्या......तुम्हें,
सोना नहीं आता है.....?
नानी ने नहीं सिखाया था,
टीचर ने नहीं पढ़ाया था,
क्या,
तुम्हें लम्बे नाख़ून वाली ऑन्टी ने नहीं डराया था..?
चलो ब्रश करके आओ,
तकिये पे लेट जाओ
मैं.....तुम्हें..
लोरी सुनाऊंगी,
आज मैं.......बारिश लाऊंगी,
तुम,
कागज़ की नाव बनाना
फिर,
नानी के घर जाना
शाम को,
वापिस आ जाना.


जन्म जात अंधी

......उसने......
त्वचा के रोये रोये से,
दिशाओ का,
साक्षात्कार किया
स्पर्श के,
नैसर्गिक सम्बोधन की
हर सम्भावना को.......
उसने.....
स्वीकार किया
आहट की.....
छोटी से छोटी,
इकाई.....
उसकी संवेदनाओं को,
रोमांचित कर
दह में,
गूँज भर देती......
रगो में,
दौड़ता अंधकार
उसके अंतस को
आकर देता रहा,
जैसे........
कोख के,
गहरे अँधेरे में,
साँस लेता है.......जीवन.....
वह,
धरती की
हर करवट को
पोर...पोर...
महसूस करती,
पगडडियों की गंध,
.....उसे.....
मंज़िल के करीब ले जाती
.......वह लड़की........
जन्म और जात, से अंधी
नहीं, समझ पाई
जन्म से.....
जात का सम्बन्ध
......वह....
दिन और रात के,
सौंदर्य में,
निरंतर......निष्पक्ष बनी रही.


मछलियां,
मगरमच्छ का
आसान शिकार,
हो सकती हैं.   .......
इस अहसास के साथ,
उसने,
भंवर के अँधेरे में,
तैरना......स्वीकार किया,
उसे,
आजीवन कारावास
कभी मान्य ना था
वह,
जानती है,
बड़ी निर्ममता के साथ......
उसे......
दलित,
और
बेबस
घोषित किया जा सकता है
जंगल में फैली आग......
कभी भी,
अपनी दिशा,
बदल सकती है
दल....दल
अँधेरा,
नरभक्षी
कोई भी
उसकी चुनौती हो सकते है.......
उसने,
स्वतंत्रता को,
दूषित होने से,
बार....बार.. बचाया
उसकी तलाश है,
वह मुख्य धारा.....
जो ले जाएगी उसे
रोशनी के,
अंतिम सत्य तक
वह जानती है
उसकी जड़ों को,
कमज़ोर कर,
बिना रीड़ का ग्रास बनाने की.....
सदियों ने,
भरपूर,
तैयारी की है
सभ्यता में,
लुप्त होना......
उसे पूरी तरह,
अस्वीकार है.
......वह......
समस्त कर्कशताओं से गुज़रकर,
जीवन को,
पूरी तरह से,
सींचना चाहती है,
समुन्द्र हो जाना चाहती है.......


K


Sunday, February 3, 2019

तीसरा आदमी

बसंत लगभग,
झड़ चुका है वहाँ.........
परिंदों की आँखों में,
सदी के ध्वंस की,
दरिद्र स्मृतियाँ साफ नज़र आती हैं.
पिछली सदी के लोग
उम्र की दरारों में,
ठहर गया,
तीसरे आदमी का तजुर्बा..........
बार बार,
दोहराते हैं
हवा की बदलती तरंगों से,
वे..........
उसकी गंध
भाँप लेते हैं,
युवाओं की त्वचा से,
शुष्क होती नमी को छूकर,
वे.........
तीसरे आदमी के संकेत,
समझ जाते हैं.
......तीसरा आदमी......
धोती....
टोपी.....
और
पगड़ी को,
पौशाक से निकालकर,
मज़हबी मंसूबों तक लाता है.
वह उनकी मिट्टी में,
बारूद रौंपता है.......
उनके नमक में खौफ घोलता है.
उसका इरादा......
महामारी की तरह फैल जाता है,
वह उनकी हड्डियों के खनिज में,
सांप्रदायिक रसायन पिघलाकर,
महंगी सिगार में कश फूँकता है.
यह तीसरा आदमी..........
हर दूसरे आदमी में,
कमज़ोर कौशिकाओं की
अराजक उपज है.
पिछली सदी के लोग
कहते हैं.........
बहुत पहले हुआ करता था,
सिर्फ......आदमी.......
जो,
धोती........
टोपी.......
और
पगड़ी......
की जगह बस कपड़ा पहनता था.
पुराने लोग बताते हैं,
देर रात,
शहरों के,
कुओं के पास,
कुछ साए, मंडराते हैं,
जो सदी का सामूहिक ध्वंस सुनाते हैं,
.......और......
वीरांगनाओ का जोहर भी,
उनकी चीखों से बच्चे जाग जाते हैं,
माँ की छातियों का,
दूध.......
 दहल जाता है.
देर रात मंडराते साए,
शौक गीत गाते हैं,
वह देखते हैं,
बसंत........
लगभग झड़ चुका है,
घौंसलों में,
बिखरे हुए पंख,
कुछ जाने पहचाने ध ब्बे हैं.
लोरियाँ रुआँसी हैं,
और.......
रात की कोख में,
ज़ख़्मी सन्नाटा है
सरसों की गंध,
कभी भी,
पीलापन खो सकती है,
धरती,
अपनी करवटों में,
अब........और.....
लावा नहीं समेट पाएगी.
जब....जब....
दूसरा आदमी,
पाया जायेगा,
पहला आदमी......
तीसरे आदमी की,
.........मौत.....
मारा जाएगा.....
और,
बसंत पूरा झड़ जाएगा......










मैंने उसे छुआ

उसके,
अद्खुले होंठों पर
बेज़ुबां बातें थीं.......
विरासत में थे
मैले दिन
और
बदनाम रातें......
कुछ,
ज़िद्द थी
थोड़े,
होंसले भी
इंसान हो पाने की कोशिश,
जीने का सामान भी था
मैंने,
वो
सब सुना
जो,
उसने
कभी ना कहा
मैंने,
वो
सब छुआ
जो भी
उसने छुपाया ......

तीली भर रोशनी

तमाम चेहरे,
एक हो जाते हैं,
लंबा,
गहरा,
अँधेरा,
जब फैलता है....
सर से पांव तक.
अँधेरे में........
हम देखते हैं.........
उजाले के सपने,
तलाशते हैं,
अपने हिस्से की ज़मीन.........
संभलकर,
पाँव रखने के लिए
अँधेरे में,
डूब जातें हैं,
उजाले में,
फैले, सारे भ्रम.
अँधेरे में,
हम
आँख खोलकर, देखने का प्रयास करते हैं,
टटोलते हैं.........
हाथ और हिम्मत
थामते हैं, हाथ......
नहीं पूछते,
उसकी जाति,
नहीं देखते,
रंग और धर्म.
हमारे स्पर्श में आती है,
सिहरन,
जो दिलाती है,
लहु की याद...........
घोर, सघन अँधेरा......
परत....परत,
गिरह खोलता है
तमाम आवाज़ें खामोश हो जाती हैं,
जब,
अँधेरे का,
सन्नाटा बोलता है.
हम,
पीते हैं,
बूँद बूँद
तन्हाई.............
सुनते हैं
महीन कम्पन,
नाभी की.........
धड़कन की........
और,
अचानक,
महसूस करते हैं,
जीवन का एहसास..........
अँधेरे में,
बच्चा कहता है,
.........माँ........
माँ, जो हो जाती है
तीली भर रोशनी,
फैल जाती है.........
गहरे,
काले,
अँधेरे में..........







कोशिशें कामियाब होती हैं

कई बार उसने बेचैन नज़रों से,
एक प्रष्न पूछना चाहा.......
तुम्हारी नींदों को,
कैसे सपने आते हैं?
मेरा सबसे हसीन.....
और,
ख़ास शौक है,
सपनों को नींदों में नहीं,
आँखों से देखना.
मेरे सपनों में,
फूलों से भरा रास्ता है......
और,
अजनबी शहर
भीगते मौसम है वहाँ,
बूँदों की आवाज़
और
धूप साथ साथ
बादलों का हुजूम,
शहर की छत्तों को,
चूमता है...........
देता है,
हरी सौगात.
छतनार गुलमोहर
और 
चीड़ की बाहों में,
हवाएं डेरा डालती हैं.........
मेरे सपने,
जातें हैं,
किसान के घर,
देखते हैं,
मुस्कुराते खेत,
पसीने से महकते,
रिश्ते और आँगन
नापते हैं,
धान की गहराई.........
मक्की संग बतियाते हैं,
गोबर से लीपी,
ज़मीन को छूकर,
जीवन की सुगंध पाते हैं...........
मैं..........
सपने में देखती हूँ,
केसरी रंग.......
आगाज़ का,
अंजाम का
जो उतरता है
मद्धम मद्धम
साँसों में,
फैलता है,
रगों में
लहु में जब बोलता है उफान
मैं.........
सूरज के सीने में,
आँखों से झांकती हूँ
लपेटकर उसकी किरणों को माथे में,
खोलती हूँ,
शहर का हर किवाड़
मैं.........
ऐसा सपना,
रोज़, खुली आँखों से जीती हूँ
क्या........? तुम,
मेरे इस,
ख़ास और हसीन शौक को,
महसूस करना चाहोगे
ऐ दोस्त,
कोशिशें कामियाब होती हैं.............



Saturday, February 2, 2019

वह स्थापना करती है

नाम- अबला
जाति- लज्जा
कुल- बेबसी
गुण-  पंगु
उत्पत्ति- चार दीवारी
स्थान - इंतज़ार
कर्म
पर्यायवाची- बेचारी
                अकेली
                कमज़ोर
उपयोगिता- पहली सुबह से
                अगली सुबह तक......
ऐसे स्त्री,
अब नहीं पाई जाएगी
........वह.......
आ चुकी है,
लाल रंग के साथ,
भुजाओं में.......
छातियों में.....
कौंध जाएगी.
पहली चीख से,
अनंत गूंज तक
.......वह.......
रंगों में
फैल जाएगी.
नकाबपोश,
अब नज़र नहीं आएंगे
........वह......
चेहरों को
मौलिकता दिलाएगी
उसकी पहचान,
कुछ
इस तरह है.....
नाम- प्राण
जाति- मानवता
कुल- जीवन
गुण- समानता
कर्म- प्रेम
पर्यायवाची- तुलसी
                अमृता
                कुमारी
उपलब्धि- पृथ्वी
 स्थान      जल
              अग्नि
              वायु
             आकाश
उपयोगिता- दूध की पहली बूँद से
                अंतिम अग्नि तक.....




   


एक कोशिश

अब की बार तुम, मेरे जन्मदिन के अहसास को मिठाई में ना बांटना.. ...
उनके पास घर जैसा सब कुछ है,
मगर... .
तुम्हारे जैसा कोई नहीं
टीचर बताती है,
....उन्हें... 
कोई नहीं सुलाता,
नाईट सूट पहनाकर,
कोई ब्रश नहीं कराता,
उनके बालों में उंगलियां कोई नहीं सहलाता.. . ...
उनकी नीदों को,
परीलोक के सपनों से कोई नहीं सजाता,
जब तारे टिमटिमात्ते हैं.. .  ............ ........
और,
दूर आसमान पर कुछ चमकता,
सफ़ेद गोलाकार नज़र आता है
 ........अंधेरा......
जब पूरी तरह उनकी आँखों में उतर जाता है,
वे.......
बत्तियां बुझाते हैं..... 
बिस्तर में छिपकर,
आदतवश सो जाते हैं.
उनकी रातों में,
बिस्तर
तकिया
भरपूर
सन्नाटा है
मगर....... 
लौरी जैसा कुछ नहीं
उनके शिशुनिकेतन में,
चार दीवारें
एक छत्त है
घर जैसा सब कुछ है वहां
मगर.......
माँ नहीं
माँ.........
तुम एक कोशिश करना
मेरी गुलक के जमा सिक्कों से
सुनहरी परी के पँख लाना
जादू की छड़ी भी,
फिर परीलोक जाना,
जैसे आती हो मेरे सपनों में.....
उनके सपनों में भी आना
तुम उनकी परी माँ बन जाना
अब की बार,
मैं अपने जन्मदिन पर
माँ ... . .......
तुम्हें . .... ....
शिशुनिकेतन मैं बाँटूंगी.
तुम, मे्रे जन्मदिन के एहसास को
 वर्ष में एक बार नहीं.. .... 
पल पल मनाना,
पौर पौर  मनाना
शिशुनिकेतन को,
गोद में भर लेना
अपने अंक से लगाना
 वे ...... ...
तेरी ममता के पंखो से भरेंगे,
हौंसलों की उड़ान,
शिशुनिकेतन की खिड़कियों से हो जायेंगे आसमान.
तुम मेरे जन्मदिन के अहसास में उनकी जननी हो जाना
अब की बार ...  . ... 
मेरे जन्मदिन के अहसास को,
माँ .. .... . ... ... 
मिठाई में ना बांटना........

  . 







Friday, February 1, 2019

स्त्री वह

उसके आँगन की तुलसी....हेमंत में भी हरी रहती है,
उसे छूने को चाँदनी ज़मीन तक उतरती है......
नक्षत्र.....उसकी लकीरें करीब से पड़ते हैं.
बादल.....उसकी मुंडेर को बिन,सावन तरसते हैं
उसके, कानों में हवा, पहला दस्तक देती है....
आँखोंं में, नाचता है,
......बसंत.....
खुशबू, मंद मंद श्रृंगार करती है
......वह.....
जब प्रेम में होती है.
..........प्रेम में............
वह, रंग और रूप बदलती है
गुलाबी अदा,
केसरी होने लगती है
ना, रुकना जानती है,
ना, चलना......
पहुंचती है
उधर-जिधऱ,
प्रेम......उसे ले जाए
रात......उसे सुला ना पाई
दिन में......
उसे जागना ना आया
पीली पत्ती की
हरी खुशबू
जैसे,
वह.....
सांस लेती है
स्त्री, वह.......
प्रेम में रहती है निरंतर

प्रेम में,,,प्रकृति होने लगती है वह



चूड़ियों की खनक थी वहाँ, काँच की चुभन भी..... खामोश थी वह, कुछ हैरान भी लगातार, वह तलाशती है कुछ अनदेखा...... भीतर गहरे में कहीं गूँजत...